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सत्ता के नशे के मगरूर

साहित्य दर्पण
साहित्य दर्पण
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सत्ता पाकर इंसान  इंसानियत भूल जाते हे।सत्ता का नशा इस तरह सभार हे कि गुरूर को अपनी जागीर समझने लगते है,जिसकी आजमाईश भोले भाले इंसानो पर निकलती हे। अपने कर्मचारियो पर दुर्व्यहार करने नहि हिचकिचाते हे जैसे उन्होने पगार देके मजदूरो को खरीद लिया हो।सही मायने में कहाँ जाये तो”गुलाम बना लिया हो”!अगर ये कहाँ जाये तो गलत नहि हे।गुलामो जैसा व्यवहार किया जाता हे।गाली गलोच देकर  सम्बोदन करना।अपने जूते साफ करवाना ,लातो से पृहार करना,थप्पङ मारना तो जैसे आये दिन के किस्से बन गये हे।रोजे के दोरान जबरन रोटी भी खिलाने से भी परहेज नहीं करते।मीडियाँ के सामने ये अपने कारनामें दिखाने में अपनी शान समझते हे।हमेंशा जनता के बीच अपनी पहचान बनाने के ,अगर यह कहाँ जाये सुरखियो में बने रहने के ये हथ कण्डे हे तो गलत नहीं हे।मगर इसमें मानवता का हनन हो रहा हे ।पशु के समान बर्ताब किया जाता हे।हम 21वी शदी में जी रहे हे स्वतन्त्र हे फिर क्यो मानव के साथ गुलामो जैसा व्यवहार किया जा रहा हे।कानून की कोई परवाह नहीं हे बल्कि सरेआम धज्जियाँ उडाई जा रही हे।ऐसा कब तक होगा,सत्ता को पाकर जनता को अपनी हाथो की कटपुतली समझते हे।डरा धमका कर अपने मन मुताबिक काम करते हे जो चाहते हे वैसा ही करते हे।ये नेता भूल जाते हे कि नेता की डोर तो जनता के हाथो हे ।पाँच साल के बाद सत्ता पर किसी ओर का अधिकार होगा।जनता जिसको चाहे फर्श से अर्श तक या अर्श से फर्श पर पहुँचा शक्ति हे।नेता क्यो भूल जाते हे कि रावण या दुर्योधन का भी पतन हुआ पर क्यों नेता अपनी शक्ति का जनता पर अजमाते हे।जनता की भलाई के लिए क्यो नहि करते हे जिसके लिए जनता ने उन्हे चुना हे।

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