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मेरी यात्रा उत्तरांखण्ड (पृकृति सौदंर्य)

साहित्य दर्पण
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[googlevideo]sammi.jadon83@gmail.com[/googlevideo]में अपने पत्ती के साथ 2011 में उंतराखण्ड गई जो वैशाख शुक्ल पक्ष अक्षय तृतीया के दिन चारो धाम के कपाट खुलना सुरू हो जाते हे जो मई  के महीने में पङती हे।दिल्ली में मई के महिने में जहाँ लू के थपेडे बदन में आग शी लगती है जी करता हे कि फिज में जाकर बैठ जाऊँ।ठण्डी  ठण्डी   हवा का झोका ऐसा लगता हे कि मानो प्यासे को पाणी मिल गया हो। डूबते को मानो तिनका का सहारा मिल गया हो। कुदरत का भी अजीब शा खेल हे।सर्दी से व्याकुल मन सूरज की चाह चाहता हे कि थोडे से सूरज के दर्शन हो जाये कि सर्दी दूर हो जाये।अलाब से तो दूर होना ही नहीं चाहते हे।सारे कपडे ठण्डे ठण्डे लगते हे।गर्मी में शर्दी चाहते हे सूरज को कोसते कि कितनी तेज चमक रहा हे।माथे से पसीना टपकता हे ठण्डा ठण्डा पानी मिल जायें तो ऐसा लगता हे कि मानो भक्त को भगवान मिल गये हो। चिलचिलाती गर्मी से दूर ठण्डी बादियो की तरफ मन करता हे कि छुट्टी बिताई जाये।समय निकालके चल पडतें कुछ हसीन लम्हो को किस्सा बनाने। हम भी निकल पङे हसीन लम्हो को किस्सा बनाने।मई के महीने में ही उत्ताखण्ड के चारों धाम के पट खुल जाते हे।तीर्थ यात्रा करने दूर दूर से आते हे।कोई अपने निजी वाहन से,तो कोई बस की सेवा दुवारा निकल पडते हे।में भी जा रही थी दिल्ली में बुरा हाल था। मन का भटकाव था दुनिया की कही तरह तरह की परेशानी होती हे।एक का समाधान हो पाया कि दूसरी परेशानी अपने पैर जमाने सुरू कर देती हे। घर परिवार में ये परेशानी तो दिन रात, धूप छाव की तरह लगी रहती हैं।मन मुटाव होता हे तो सबके साथ खुसियाँ भी तो मनाते हे। सब कुछ जीवन का हिस्सा बन जाते हे।हर पडाव से सीख मिलती हे बस नजरिया होना चाहिए।सच कहूँ तो जोहरी की परख होनी चाहिए।जितना हम रिस्तो को तरासते हे उतने ही निखरते हे चमकते हे।मन परिवार में इतना खो जाता हे कि मन एक चित स्थर नहीं हो पाता हे।मंन्दिर में पूजा करने बेठो तो मन में जाणे कब कब की यादें आने लगती हे।दो घडी बेढना भी बोझ लगता हे।ऐसा लगता हे मानो जेल में कैद हो।अगर गप्पे झाकना हो या किसी की बुराई करनी हो या सुननी हो तो नीद की क्या औकात जमाई भी नहीं आ सकती ।ये सारी कहाणी तो पूजा पाठ या भजन कीर्तन के दोरान ही होती हे।हमारे साथ साथ नदियो का पाणी अपनी राह से बह रहा था, सर्फ शी चाल गङ गङ की आवाज लहरो की हिठखोली अनुपम छटा बिखेरती पृकृति का जादु था।में बस में बेठी और पृकृति सौन्दर्यता को देखकर मन मुग्ध हो गई।हरे भरे  पेङ पोधो से सुशोभित जहाँ की सुंदरता में रंग बिरगे फूलो से सजी घाटी ,मंद मंद खुसबू से वातावरण मन को मुस्का रहा था।हल्की हल्की बूंदो की बोछार उस पर काजळ लगाती घटाये ,मन को एक चित कर रही थी ।नजर हट ही नहीं रही थी।श्वेत श्वेत बर्फ दरारो में समाई जैसे हरे रंग पर पर श्वेत रंग से कोई बूंटा बनाया गया हो उस पर फूलो पत्तियो से सजी किनारी अपनी कहाणी वयाँ कर रहा था।हर रंग की झडी एक अजब शी छटा बिखेर रही थी।झरनो से बहता पानी राग छेङ रही थी ,सुर में सुर मिलाते पंछी गीत गा रहे थे, मानो अपने मेहमानो का अभिनंदन कर रहो।पृकित सौन्दर्यता इतनी मन को मोह रही थी कि किसी ने मोह पास का जादु कर दिया हो ,उस जादु के बंदन में मन खो गया था।अपनी पुरानी यादे परिवारं की वो कडवाहट दुख को भूल गये थे।जो हमेशा मुरझाया चेहरा रहता था अब एक अजब शी मुस्कान थी।इस पल से मन ओझल होना ही नहीं चाहता था बस उसके साथ जी भर जीना चाहता था।किसान सीडीं नुमा खेती करते देखा उनके बंदन में वो फुर्ती कहाँ से थी?कही दूर दूर तक ऊँचाई तक चले जाना,उतर के आना थकान का नामो निसान नही था यहाँ तो घर की दो सीङी लगातार चड लो तो साँस फूल जाती हे और ये इतनी मेहनत कैसे कर लेते है?शत शत नमन हे इनकी हिम्मत को।”हार नहि मानूगा जब तक प्राण ,स्वर्णमय इतियास रचाऊगा जब तक जान है” हम तो सर्दी में रजाई से निकलना पंसद नहि करते हे और हे जावाज जी जान से दिन रात काम करते हे।सच कहूँ तो ये मैदानी क्षैत्रो में रहने बालो के लिए,जो मेहनत से जी चुराते हे उनके लिए प्रेना हे हमें कभी भी होसला नहीं खोना चाहिए कदम कदम पृकृति इम्तिहान लेती हे पर जीत की खुसबू सारी परेशानियो को भुला देती हे।पहाङो पर पशु पंछी भी खोये हुऐ इंसान को जीने की कुछ करने की ललक जगाती हे।मोसम का कोई पृभाव उनके पैर की वेङिया नहीं  बनती बल्कि जिदंगी का जुनून बनती हे।जब तक जुनून नहीं तो मकसद कैसा?जुनून हो तो मकसद को हासिल किया जाता हैं।जमीं के स्वर्ग के बारे में पडा था जो कश्मीर की बादियो को कहाँ जाता हे।जब यहाँ का नजारा मन को मुंध कह रहा हे कि ये मानव मेरी सौन्दर्य के लिए कुछ अलफाज तो कह,कुछ पक्ती  कविता की तो कह,।देखते देखते कब सफर  खत्म हो गया पता ही नहीं चला। शब्द थोङे पड जायेगे पर पृकृति का चित्रण वयाँ नहीं हो पायेगा।जब घर जाणे की बात आई तो मन उदास हो गया।ऐसा लग रहा था एक प्रेमी अपने प्रेमिका से जुदा हो रहा हो वो व्यर्था थी।सच कहाँ हे पृकृति ही प्रेम की जननी हे।सुनहरे सपने बुने जाते है,पूजा की जाती हे।ना कि सपनो को मसला जाता हे उजाडा जाता हे।सरकार इस धरोहर को और सम्पन्न समृद्ध बनाने के लिए लोगो को जागरूक कर रही हे कि एक पेङ लगाओ सो पुन्य कमाओ।अगर ये कहा जाये तो झूठ नहीं हे।पृकृति की सौंदर्य से ही हमारी धरा सजी हुई हे हमें उसका स्वागत करना चाहिए ,हमें जिदगी की सच् से परिचय कराती हे ।हमें पृकृति के साथ कदम से कदम मिलाके चलना चाहिए न कि पृकृति से वेर करना चाहिए।

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