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पिता हे कुम्हार

साहित्य दर्पण
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पिता हे कुम्हार,

मै मिट्टी का पात्र!!

ठोक पीठ का बार,

आज समझा हूँ सार!!

कदम चलो तो गिरता था,

पिता ने थामा था हाथ!!

घोङा गाङी खेल खिलौने,

सब कुछ लाते थे!!

टूट जायें तो रोता हूँ,

बातो से बहलाते थे!!

मेरी शरारत बातों से,

हँसते और हँसाते थे!!

जिद्द पर ऐसे अङजाता,

जमीं पर लिपट जाता था!!

डरा धमकाकर न मानें,

तो तमाचें पङ जाते थे!!

जिद्द को करते पूरा,

मुझको मनाते तो थे!!

पिता हे कुम्हार,

में मिट्टी का पात्र!!

क्या हित क्या अहित सब,

सब सीख देते थे!!

मेरे मित्र मेरी संगत,

सब नजर रखते थे!!

आकाँक्षो की दरकिनार,

मेरी आकाँक्षा पूरी करते थे!!

व्यापार का गुणा भाग,

हमसे दूर रखते थे!!

में चौरी2 संगत करता

,नजर से कब बचपाता था!!

पर पढी थी वो थाप,

अबतक न भूला था!!

तब पिता को बहुत कोसा,

आज बना पक्का पात्र!!

पिता मेरे बीच बढती दूरी,

आज समझा जीवन सार!!

जाग जाग कर पढाते ,

डाँट डाँट कर बिढाते थे!!

तब पढाई लगती बोझ,

आज समझा हूँ सोच!!

भटक न जाऊँ पथ से,

हर राह पर बने मित्र थे!!

आज जो बनी हे हस्ती,

पिता की छाप हैं बसी!!

पिता भी सोंच लेते अगर,

मिट्टी को होता हे दर्द!!!!

तो आज कैसे बनता,

मिट्टी से पक्का पात्र!!

पिता की कही हर बात,

जीवन का आज समझा सार!!

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